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मोहन भागवत का दृष्टिकोण: “75 की उम्र में रिटायरमेंट” और “इस्लाम भारत का हिस्सा है” — एक विश्लेषण


    भूमिका

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में दो महत्वपूर्ण विषयों पर बयान दिए हैं, जो राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोण से अत्यंत चर्चा का विषय बने। पहला विषय था—75 वर्ष की उम्र में सार्वजनिक जीवन से रिटायरमेंट, और दूसरा—भारत में इस्लाम की स्थायी उपस्थिति को लेकर उनका विचार। इन बयानों के पीछे की सोच और उनके संभावित निहितार्थों को समझना जरूरी है।


    भाग 1: ७५ की उम्र और “सेवानिवृत्ति” की बहस

    संदर्भ:

    कुछ समय पहले, मोहन भागवत ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में आरएसएस के पूर्व वरिष्ठ प्रचारक मोरोपंत पिंगले का उदाहरण देते हुए कहा कि जब उन्हें ७५ वर्ष की उम्र में शॉल पहनाई गई, तो उन्होंने मजाक में कहा, “अब तो ७५ की शॉल मिल गई, मतलब पीछे हटना चाहिए।”

    इस बात को कई लोगों ने एक संकेत के रूप में देखा कि RSS और संभवतः भाजपा भी ७५ वर्ष की उम्र के बाद नेताओं को सक्रिय राजनीति से हटाने की परंपरा का पालन करती है। इस टिप्पणी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उम्र (जो निकट भविष्य में ७५ होने वाली है) से जोड़कर देखा जाने लगा।

    सफाई और स्पष्टता:

    भागवत ने इस बयान के राजनीतिक अर्थ निकाले जाने पर आपत्ति जताई। उन्होंने कहा:

    • “मैंने कभी नहीं कहा कि मैं ७५ में रिटायर हो जाऊँगा।”
    • “ना ही मैंने कहा कि किसी और को रिटायर हो जाना चाहिए।”
    • “संघ में ऐसी कोई पेंशन योजना नहीं है। संघ जब तक कहेगा, मैं काम करता रहूँगा।”
    • “अगर संघ चाहे, तो मैं ८० की उम्र में भी शाका लगाऊँगा।”

    विश्लेषण:

    इस स्पष्टीकरण के पीछे दो महत्वपूर्ण बातें छिपी हैं:

    1. संघ की लचीलापन नीति: संघ एक गैर-राजनीतिक, वैचारिक संगठन है, जहाँ उम्र के आधार पर “सेवानिवृत्ति” का कोई औपचारिक नियम नहीं है। इसका मतलब यह है कि संघ नेतृत्व अनुभव को प्राथमिकता देता है, न कि केवल आयु को।
    2. राजनीतिक संकेतों से दूरी: भागवत ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी टिप्पणियों को भाजपा की आंतरिक राजनीति से न जोड़ा जाए, जिससे यह स्पष्ट होता है कि संघ और भाजपा के बीच दूरी बनाए रखने का प्रयास जारी है।

    भाग 2: इस्लाम और भारत की पहचान

    बयान:

    मोहन भागवत ने अपने एक अन्य भाषण में यह स्पष्ट कहा कि:

    • “इस्लाम भारत का हिस्सा है और हमेशा रहेगा।”
    • उन्होंने ज़ोर दिया कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है और किसी पर ज़बरदस्ती नहीं की जानी चाहिए।
    • साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि देश में अवैध घुसपैठ को रोका जाना चाहिए ताकि भारत के नागरिकों — जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं — को रोजगार के अवसर मिलें।

    व्याख्या:

    1. धार्मिक सह-अस्तित्व का संदेश:
      भागवत का यह बयान भारत में बहुलवाद और धार्मिक सहिष्णुता को समर्थन देने वाला है। इससे यह संकेत मिलता है कि संघ अब पहले से कहीं अधिक समावेशी और समकालीन दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश कर रहा है।
    2. राष्ट्रवाद बनाम मजहबी कट्टरता:
      उन्होंने स्पष्ट रूप से यह अंतर किया कि इस्लाम को भारत में स्थान प्राप्त है, लेकिन घुसपैठ और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह विचारधारा “भारत का मुसलमान” और “भारत में घुसपैठिए” के बीच भेद करती है।
    3. राजनीतिक परिपक्वता:
      यह बयान ऐसे समय आया है जब देश में धार्मिक ध्रुवीकरण की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। भागवत की यह टिप्पणी आरएसएस की “मूल विचारधारा” को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास प्रतीत होती है।

    निष्कर्ष:

    मोहन भागवत के दोनों बयानों में एक परिपक्व दृष्टिकोण दिखाई देता है — जहाँ वे एक ओर उम्र और नेतृत्व परिवर्तन पर लचीला रुख अपनाते हैं, वहीं दूसरी ओर भारत की विविधता को स्वीकारते हुए इस्लाम की भारतीयता को स्वीकार करते हैं।

    यह स्पष्ट होता है कि संघ अब “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” को एक नए सामाजिक स्वरूप में प्रस्तुत कर रहा है, जो समावेशी भी है और नियंत्रणकारी भी। ऐसे में आने वाले समय में संघ और भाजपा दोनों के लिए यह बयानबाज़ियाँ दिशा-निर्धारक साबित हो सकती हैं।


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